कहानी संग्रह >> 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (निर्मल वर्मा) 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (निर्मल वर्मा)निर्मल वर्मा
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निर्मल वर्मा की दस प्रतिनिधि कहानियाँ...
10 Pratinidhi Kahaniyan a Hindi Book by Nirmal Varma - 10 प्रतिनिधि कहानियाँ - निर्मल वर्मा
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ सीरीज़ किताबघर प्रकाशन की एक महत्वाकांक्षी कथा-योजना है, जिसमें हिंदी कथा-जगत के सभी शीर्षस्थ कथाकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
इस सीरीज़ में सम्मिलित कहानीकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने संपूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन करें, जो पाठकों, समीक्षकों तथा संपादकों के लिए मील का पत्थर रही हों तथा वे कहानियाँ भी हों, जिनकी वजह से उन्हें स्वयं को भी ‘कहानीकार’ होने का अहसास बना रहा हो। भूमिका-स्वरूप कथाकार का एक वक्तव्य भी इस सीरीज़ के लिए आमंत्रित किया गया है, जिसमें प्रस्तुत कहानियों को प्रतिनिधित्व सौंपने की बात पर चर्चा करना अपेक्षित रहा है।
किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए सभी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज़ के महत्त्वपूर्ण कथाकार निर्मल वर्मा ने प्रस्तुत संकलन में अपनी जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं: ‘दहलीज’, ‘लवर्स’, ‘जलती झाड़ी’, ‘लंदन की एक रात’, ‘उनके कमरे’, ‘डेढ़ इंच ऊपर’, ‘पिता और प्रेमी’, ‘वीकएंड’, ‘जिंदगी यहाँ और वहाँ’, तथा ‘आदमी और लड़की’।
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात कथाकार निर्मल वर्मा की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।
इस सीरीज़ में सम्मिलित कहानीकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने संपूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन करें, जो पाठकों, समीक्षकों तथा संपादकों के लिए मील का पत्थर रही हों तथा वे कहानियाँ भी हों, जिनकी वजह से उन्हें स्वयं को भी ‘कहानीकार’ होने का अहसास बना रहा हो। भूमिका-स्वरूप कथाकार का एक वक्तव्य भी इस सीरीज़ के लिए आमंत्रित किया गया है, जिसमें प्रस्तुत कहानियों को प्रतिनिधित्व सौंपने की बात पर चर्चा करना अपेक्षित रहा है।
किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए सभी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज़ के महत्त्वपूर्ण कथाकार निर्मल वर्मा ने प्रस्तुत संकलन में अपनी जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं: ‘दहलीज’, ‘लवर्स’, ‘जलती झाड़ी’, ‘लंदन की एक रात’, ‘उनके कमरे’, ‘डेढ़ इंच ऊपर’, ‘पिता और प्रेमी’, ‘वीकएंड’, ‘जिंदगी यहाँ और वहाँ’, तथा ‘आदमी और लड़की’।
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात कथाकार निर्मल वर्मा की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।
भूमिका
पिछले तीस वर्षों के दौरान लिखी गई कहानियों में से दस कहानियाँ चुनना काफी हद तक दुष्कर कार्य है। कहना आसान होता है कि वे ‘श्रेष्ठ’ कहानियाँ हैं, किन्तु ‘श्रेष्ठता’ की कसौटी लेखक के मन में एक जैसी नहीं रहती। एक समय में ये कहानियाँ इतनी ‘उतुकृष्ट’ मानी जाती थीं, समय की धूल में वे अब काफी मलिन जान पड़ती हैं और अब तक जो कहानियाँ ‘उपेक्षित’ थीं, वे सहसा एक नया जीवन प्राप्त कर लेती हैं। इधर कुछ ‘प्रतिनिधि’ कहानियों के संकलन प्रकाशित करने का रिवाज भी चला है; यह शायद सबसे संदिग्ध कसौटी है। कथाकार का संसार इतनी परस्पर विरोधी मनःस्थितियों के तंतुजाल से बना होता है, कि शायद ही कोई कहानी उसका सही और सटीक ‘प्रतिनिधित्व’ कर सके। इन सीमाओं के बावजूद कुछ ऐसे ‘आग्रह’ अथवा चिंताए अथवा आप चाहें तो कह सकते हैं, कुछ ऐसी गुत्थियाँ और गाठे होती हैं, जिन्हें एक लेखक बार-बार अपनी कहानियों में दोहराता है, उलझाता है, सुलझाने का रास्ता खोजता है। ये कहानियाँ लेखक का ‘हस्ताक्षर’ हैं, जिसे हम एक वाक्य पढ़ते ही पहचान लेते हैं। संभव है, यह ‘हस्ताक्षर’ आपको इन दस कहानियों में भी दिखाई दे।
इस संग्रह की पहली कहानी 1955 और अंतिम 1980 के आसपास लिखी गई थी। पच्चीस-तीस वर्षों की लंबी कथा-यात्रा में मेरे भीतर जो अदृश्य परिवर्तन चलते रहे, उनकी एक दृश्य छाया शायद आपको इन कहानियों में मिलेगी। मुझे नहीं मालूम कि इस यात्रा को कहाँ तक अलग-अलग स्टेशनों अथवा पड़ावों द्वारा अंकित किया जा सकता है, सिर्फ इतना कहा जा सकता है, कि हर कहानी में चाहे ‘दुनिया का यथार्थ’ एक जैसा रहता हो-या दिखाई देता हो-उसे देखने, जीने, परखने की जगह थोड़ी ‘शिष्ट’ हो जाती है, सत्य को चखने का स्वाद थोड़ा बदल जाता है। क्या इसे हम एक लेखक का ‘विकास’ कह सकते हैं ? मुझे डर है, इन दस कहानियों में परिवर्तन के चिन्ह भले ही चीन्हे जा सकें, विकास या क्षति के कारण आँकना मुश्किल होगा। मेरे लिए। संभव है, एक वस्तुपरक आलोचक के लिए यह काम उतना असाध्य नहीं होगा।
अक्सर देखा गया है, कि एक लेखक अपनी रचनाओं का विश्वनीय पक्ष नहीं होता।
कभी-कभी तो उसे अपनी हर कहानी पर शर्म सी महसूस होती है और कभी उसे इतना गर्व महसूस होता है कि पाठकों को उसके लिए शर्म आती है ! आदर्श स्थिति तो यह है कि काट-छाँट को हृदयहीन शल्य-क्रिया किसी क्रूर आलोचक, निर्दय संपादक या विवेकशील पाठक पर छोड़ दी जाए, और यदि वह संभव न हो तो स्वयं लेखक को अपने भीतर इतनी वस्तुपरकता और विवेक समेटने की यथार्थ होनी चाहिए कि वह खुद अपने कृतित्व को अपने से बाहर देख सके। इस संकलन की कहानियों का चयन करते समय कहाँ तक मैं यह तटस्थता बरत सका हूँ, इसका निर्णय तो पाठक ही करेंगे। अपनी ओर से यह कोशिश जरूर की है, कि इस संकलन में वे ही कहानियाँ न दी जाएँ, या कम-से-कम दी जाएँ, जो दूसरे संकलनों में आ चुकी हैं। शायद यही इसकी प्रमुख विशेषता भी है-पहली बार पाठकों को एक जिल्द में कुछ ऐसी कहानियाँ पढ़ने को मिलेगी जो अन्य संकलनों में आसानी से उपलब्ध नहीं होतीं।
14A/20, वेस्टर्न एक्सटेंशन एरिया नई दिल्ली
इस संग्रह की पहली कहानी 1955 और अंतिम 1980 के आसपास लिखी गई थी। पच्चीस-तीस वर्षों की लंबी कथा-यात्रा में मेरे भीतर जो अदृश्य परिवर्तन चलते रहे, उनकी एक दृश्य छाया शायद आपको इन कहानियों में मिलेगी। मुझे नहीं मालूम कि इस यात्रा को कहाँ तक अलग-अलग स्टेशनों अथवा पड़ावों द्वारा अंकित किया जा सकता है, सिर्फ इतना कहा जा सकता है, कि हर कहानी में चाहे ‘दुनिया का यथार्थ’ एक जैसा रहता हो-या दिखाई देता हो-उसे देखने, जीने, परखने की जगह थोड़ी ‘शिष्ट’ हो जाती है, सत्य को चखने का स्वाद थोड़ा बदल जाता है। क्या इसे हम एक लेखक का ‘विकास’ कह सकते हैं ? मुझे डर है, इन दस कहानियों में परिवर्तन के चिन्ह भले ही चीन्हे जा सकें, विकास या क्षति के कारण आँकना मुश्किल होगा। मेरे लिए। संभव है, एक वस्तुपरक आलोचक के लिए यह काम उतना असाध्य नहीं होगा।
अक्सर देखा गया है, कि एक लेखक अपनी रचनाओं का विश्वनीय पक्ष नहीं होता।
कभी-कभी तो उसे अपनी हर कहानी पर शर्म सी महसूस होती है और कभी उसे इतना गर्व महसूस होता है कि पाठकों को उसके लिए शर्म आती है ! आदर्श स्थिति तो यह है कि काट-छाँट को हृदयहीन शल्य-क्रिया किसी क्रूर आलोचक, निर्दय संपादक या विवेकशील पाठक पर छोड़ दी जाए, और यदि वह संभव न हो तो स्वयं लेखक को अपने भीतर इतनी वस्तुपरकता और विवेक समेटने की यथार्थ होनी चाहिए कि वह खुद अपने कृतित्व को अपने से बाहर देख सके। इस संकलन की कहानियों का चयन करते समय कहाँ तक मैं यह तटस्थता बरत सका हूँ, इसका निर्णय तो पाठक ही करेंगे। अपनी ओर से यह कोशिश जरूर की है, कि इस संकलन में वे ही कहानियाँ न दी जाएँ, या कम-से-कम दी जाएँ, जो दूसरे संकलनों में आ चुकी हैं। शायद यही इसकी प्रमुख विशेषता भी है-पहली बार पाठकों को एक जिल्द में कुछ ऐसी कहानियाँ पढ़ने को मिलेगी जो अन्य संकलनों में आसानी से उपलब्ध नहीं होतीं।
14A/20, वेस्टर्न एक्सटेंशन एरिया नई दिल्ली
निर्मल वर्मा
दहलीज
पिछली रात रूनी को लगा कि इतने बरसों कोई पुराना सपना धीमे कदमों से उसके पास चला आया है। वही बंगला था, अलग कोने में पत्तों से घिरा हुआ...वह धीरे-धीरे फाटक के भीतर घुसी है...मौन की अथाह गहराई में लाँन डूबा है...शुरू मार्च की वसंती हवा घास को सिरह-सहला जाती है...बरसों पहले के रिकार्ड की धुन छतरी के नीचे से आ रही है...ताश के पत्ते घास पर बिखरे हैं...लगता है, जैसे शम्मी भाई अभी खिलखिलाकर हँस देंगे और आपा (बरसों पहले जिनका नाम जेली था) बंगले के पिछवाड़े क्यारियों को खोदती हुई पूछेगी-रूनी, जरा मेरे हाथों को तो देख कितने लाल हो गये हैं !
इतने बरसों बाद रूनी को लगा कि वह बँगले के सामने खड़ी है और सब कुछ वैसा ही है, जैसा कभी बरसों पहले, मार्च के एक दिन की तरह था...कुछ भी नहीं बदला, वही बँगला है, मार्च की खुश्क, गरम हवा साँय-साँय करती चली आ रही है, सूनी सी दुपहर को परदे के रिंग धीमे-धीमे खनखना जाते हैं-और वह घास पर लेटी है-बस, अब अगर मैं मर जाऊँ, उसने उस घड़ी सोचा था।
लेकिन वह दुपहर ऐसी न थी कि केवल चाहने भर से कोई मर जाता है। लॉन के कोने में तीन पेड़ों का झुरमुट था, ऊपर की फुनगियाँ एक-दूसरे से बार-बार उलझ जाती थीं। बंगले की छत पर लगे एरियल पोल के तार को देखो, (देखो तो घास पर लेटकर अधमुँदी आँखों से रूनी ऐसे ही देखती है) तो लगता है, कैसे वह हिल रहा है हौले-हौले—अनझिप आँखों से देखो, (पलक बिल्कुल न मूँदो, चाहे आँखों में आँसू भर जाएँ तो भी—रूनी ऐसे ही देखती है) तो लगता है, जैसे तार बीच में से कटता जा रहा है और दो कटे हुए तारों के बीच आकाश की नीली फाँक आँसू की सतह पर हल्के-हल्के तैरने लगती है...
हर शनिवार की प्रतीक्षा हफ्ते भर की जाती है। ...वह जेली को अपने स्टाम्प-एल्बम के पन्ने खोलकर दिखलाती है और जेली अपनी किताब से आँखें उठाकर पूछती है—अर्जेटाइना कहाँ है ? सुमात्रा कहाँ है ?...वह जेली के प्रश्नों के पीछे फैली हुई असीम दूरियों के धूमिल छोर पर आ खड़ी होती है।...हर रोज नए-नए देशों के टिकटों से एल्बम के पन्ने भरते जाते हैं, और जब शनिवार की दुपहर को शम्मी भाई होटल से आते हैं, तो जेली कुर्सी से उठ खड़ी होती है, उसकी आँखों में एक घुली-घुली-सी ज्योति निखर आती है और वह रूनी के कंधे झिझोड़कर कहती है—जा, जरा भीतर से ग्रामोफोन तो ले आ।
रूनी क्षण-भर रुकती है, वह जाये या वहीं खड़ी रहे ? जेली उसकी बड़ी बहन है, उसके और जेली के बीच बहुत से वर्षों का सूना, लम्बा फासला है। उस फासले के दूसरे छोर पर जेली है, शम्मी भाई हैं, वह उन दोनों में से किसी को नहीं छू सकती। वे दोनों उससे अलग जीते हैं।...ग्रामोफोन महज एक बहाना है, उसे भेजकर जेली शम्मी भाई के संग अकेली रह जाएगी और तब...रूनी घास पर भाग रही है बंगले की तरफ...पीली रोशनी में भीगी घास के तिनकों पर रेंगती हरी, गुलाबी धूप और दिल की घड़कन, हवा, दूर की हवा के मटियाले पंख एरियल-पोल को सहला जाते हैं सर्र-सर्र, और गिरती हुई लहरों की तरह झाड़ियाँ झुक जाती हैं। आँखों से फिसलकर वह बूँद पलकों की छाँह में काँपती है, जैसे वह दिल की धड़कन है, जो पानी में उतर आई है।
शम्मी भाई जब होटल से आते हैं, तो वे सब उस शाम लॉन के बीचोबीच कैनवास की पैराशूटनुमा छतरी के नीचे बैठते हैं। ग्रामोफोन पुराने जमाने का है। शम्मी भाई हर रिकार्ड के बाद चाभी देतें हैं, जेली सुई बदलती है और वह, रूनी चुपचाप चाय पीती रहती है। जब कभी हवा का कोई तेज झोका आता है, तो छतरी धीरे-धीरे डोलने लगती है, उसकी छाया चाय के बर्तनों, टीकोजी और जेली के सुनहरी बालों को हल्के से बुहार जाती है और रूनी को लगता है कि किसी दिन हवा का इतना जबरदस्त झोंका आएगा कि छतरी धड़ाम से नीचे आ गिरेगी और वे तीनों उसके नीचे दब मरेंगे।
शम्मी भाई जब अपने होस्टल की बातें बताते हैं, तो वह और जेली विस्मय और कौतूहल से टुकुर-टुकुर उनकें चेहरे, उनके हिलते हुए होठों को निहारती हैं। रिश्ते में शम्मी भाई चाहे उनके कोई न लगते हों किन्तु उनसे जान-पहचान इतनी पुरानी है कि अपने-पराए का अन्तर कभी उनके बीच आया हो, याद नहीं पड़ता। होस्टल में जाने से पहले जब वह इस शहर में आए थे, तो अब्बा के कहने पर कुछ दिन उन्हीं के घर रहे थे।
अब कहीं वह शनिवार को उनके घर आते हैं, तो अपने संग जेली के लिए यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी से अंग्रेजी के उपन्यास और अपने मित्रों से माँगकर कुछ रिकार्ड लाना नहीं भूलते।
आज इतने बरसों बाद भी जब उसे शम्मी भाई के दिए हुए अजीबोगरीब नाम याद आते हैं, तो हंसी आए बिना नहीं रहती। उनकी नौकरानी मेहरू के नाम को चार चाँद लगाकर शम्मी भाई ने उसे कब सदियों पहले की सुकुमार शहजादी मेहरून्निसा बना दिया, कोई नहीं जानता। वह रेहाना से रूनी हो गई और आपा पहले बेबी बनी, उसके बाद जेली आइस्क्रीम और आखिर में बेचारी सिर्फ जेली बनकर रह गई। शम्मी भाई के नाम इतने बरसों बाद भी, लॉन की घास और बँगले की दीवारों से लिपटी बेल लताओं की तरह, चिरन्तन और अमर हैं।
ग्रामोफोन के घूमते हुए तवे पर फूल पत्तियाँ उग आती हैं, एक आवाज उन्हें अपने नरम, नंगे हाथों से पकड़कर हवा में बिखेर देती है, संगीत के सुर झाड़ियों में हवा से खेलते हैं, घास के नीचे सोई हुई भूरी मिट्टी पर तितली का नन्हा-सा दिल धड़कता है...मिट्टी और घास के बीच हवा का घोसला काँपता है...काँपता है...और ताश के पत्तों पर जेली और शम्मी भाई के सिर झुकते हैं, उठते हैं, मानो वे दोनों चार आँखों से घिरी साँवली झील में एक दूसरे की छायाएँ देख रहे हों।
और शम्मी भाई जो बात कहते हैं, उस पर विश्वास करना-न करना कोई माने नहीं रखता। उनके सामने जैसे सब कुछ छूट जाता है, सब कुछ खो जाता है...और कुछ ऐसी चीजें हैं, जो चुप रहती हैं और जिन्हें जब रूनी रात को सोने से पहले सोचती है, तो लगता है कि कहीं एक गहरा, धुँधला-सा गड्ढा है, जिसके भीतर वह फिसलते-फिसलते बच जाती है, और नहीं गिरती है तो मोह रह जाता है न गिरने का। ...और जेली पर रोना आता है, गुस्सा आता है। जेली में क्या कुछ है कि शम्मी भाई जो उसमें देखते हैं, वह रूनी में नहीं देखते ? और जब जेली में क्या कुछ है कि शम्मी भाई जेली के संग रिकार्ड बजाते हैं, ताश खेलते हैं, ( मेज के नीचे अपना पाँव उसके पाँव पर रख देते हैं) तो वह अपने कमरे की खिड़की के परदे के परे चुपचाप उन्हें देखती रहती है, जहाँ एक अजीब-सी मायावी रहस्यमयता में डूबा, झिलमिल-सा सपना है और परदे को खोलकर पीछे देखना, यह क्या कभी नहीं हो पाएगा ?
मेरा भी एक रहस्य है जो ये नहीं जानते, कोई नहीं जानता। रूनी ने आँखें मूँदकर सोचा, मैं चाहूँ तो कभी भी मर सकती हूँ, उन तीन पेड़ों के झुरमुट के पीछे, ठण्डी गीली घास पर, जहाँ से हवा में डोलता हुआ एरियल पोल दिखाई देता है।
हवा में उड़ती हुई शम्मी भाई की टाई...उनका हाथ, जिसकी हर अंगुली के नीचे कोमल सफेद खाल पर लाल-लाल-से गड्ढे उभर आए थे, छोटे-छोटे चाँद-से गड्ढे, जिन्हें अगर छुओ, मुठ्टी भीचों, हल्के-हल्के से सहलाओ, तो कैसा लगेगा ? सच कैसा लगेगा ? किन्तु शम्मी भाई को नहीं मालूम कि वह उनके हाथ को देख रही है, हवा में उड़ती हुई उनकी टाई, उनकी झिपझिपाती आँखों को देख रही है।
ऐसा क्यों लगता है कि एक अपरिचित डर की खट्टी-खट्टी-सी खुश्बू उसे अपने में धीरे-धीरे घेर रही है, उसके शरीर के एक-एक अंग की गाँठ खुलती जा रही है, मन रुक जाता है और लगता है कि लॉन से बाहर निकलकर वह धरती के अंतिम छोर तक आ गई है और उसके परे केवल दिल की धड़कन है, जिसे सुनकर उसका सिर चकराने लगता है ( क्या उसके संग ही यह होता है, या जेली के संग भी ?)।
-तुम्हारी एल्बम कहाँ है ?-शम्मी भाई से उसके सामने आकर खड़े हो गए। उसने घबराकर शम्मी भाई की ओर देखा। वह मुस्करा रहे थे।
-जानती हो, इसमें क्या है ?-शम्मी भाई ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। रूना का दिल धौकनी की तरह धड़कने लगा। शायद शम्मी भाई वही बात कहने वाले हैं, जिसे वह अकेले में, रात को सोने से पहले कई बार मन-ही-मन सोच चुकी है। शायद इस लिफाफे के भीतर एक पत्र है, जो शम्मी भाई ने चुपके से उसके लिए, केवल उसके लिए लिखा है। उसकी गर्दन के नीचे फ्राक के भीतर से ऊपर उठती हुई कच्ची-सी गोलाइयों में मीठी-मीठी-सी सुइयाँ चुभ रही हैं, मानो शम्मी भाई की आवाज ने नंगी पसलियों को हौले-से उमेठ दिया हो। उसे लगा, चाय की केतली की टीकोजी पर जो लाल-नीली मछलियाँ काढ़ी गई हैं, वे अभी उछलकर हवा में तैरने लगेंगी और शम्मी भाई सब कुछ समझ जाएँगे-उनसे कुछ भी न छिपा रहेगा।
शम्मी भाई ने वह नीला लिफाफा मेज पर रख दिया और उसमें से दो टिकट निकालकर मेज पर बिखेर दिए।
-ये तुम्हारी एल्बम के लिए हैं...
वह एकाएक कुछ समझ नहीं सकी। उसे लगा, जैसे उसके गले में कुछ फँस गया है और उसकी पहली और दूसरी साँस के बीच एक खाली अँधेरी खाई खुलती जा रही है...
जेली, जो माली के फावड़े से क्यारी खोदने में जुटी थी, उसके पास आकर खड़ी हो गई और अपनी हथेली हवा में फैलाकर बोली-देख रूनी मेरे हाथ कितने लाल हो गए हैं।
रूनी ने अपना मुँह फेर लिया।...वह रोयेगी, बिल्कुल रोयेगी, चाहे जो कुछ हो जाए...
चाय खत्म हो गई थी। मेहरून्निसा ताश और ग्रामोफोन भीतर ले गई और जाते-जाते कह गई कि अब्बा उन सबको भीतर आने के लिए कह रहे हैं। किंतु रात होने में अभी देर थी, और शनिवार को इतनी जल्दी भीतर जाने के लिए किसी के मन में कोई उत्साह नहीं था। शम्मी भाई ने सुझाव दिया कि वे कुछ देर के लिए वाटर-रिजर्वायर तक घूमने चलें। उस प्रस्ताव पर किसी को कोई आपत्ति नहीं थी। और वे कुछ ही मिनटों में बँगले की सीमा पार करके मैदान की ऊबड़-खाबड़ जमीन पर चलने लगे।
चारों ओर दूर-दूर तक भूरी-सूखी मिट्टी के ऊँचे-नीचे टीलों और ढूहों के बीच बेरों की झाड़ियाँ थी, छोटी-छोटी चट्टानों के बीच सूखी धारा उग आई थी, सड़ते हुए पीले पत्तों से एक अजीब, नशीली-सी, बोझिल, कसैली गंध आ रही थी, धूप की मैली तहों पर बिखरी-बिखरी-सी हवा थी।
शम्मी भाई सहसा चलते-चलते ठिठक गए।
-रूनी कहाँ है ?
-अभी तो हमारे आगे-आगे चल रही थी-जेली ने कहा। उसकी साँस ऊपर चढ़ती है और बीच में ही टूट जाती है।
दोनों की आँखें मैदान के चारों ओर घूमती हैं...मिट्टी के ढूहों पर पीली धूल उड़ती है।...लेकिन रूनी वहाँ नहीं है बेर की सूखी, मटियाली झाड़ियाँ हवा में सरसराती हैं, लेकिन रूनी वहाँ नहीं है।...पीछे मुड़कर देखो, तो पगडण्डियों के पीछे पेड़ों के झुरमुट में बँगला छिप गया है, लॉन की छतरी छिप गई है... केवल उनके शिखरों के पत्ते दिखाई देते हैं, और दूर ऊपर फुनगियों का हरापन सफेद चाँदी में पिघलने लगा है। धूप की सफेदी पत्तों से चाँदी की बूँदों-सी टपक रही है।
वे दोनों चुप हैं... शम्मी भाई पेड़ की टहनी से पत्थरों के ईर्द-गिर्द टेढ़ी-मेढ़ी आकृतियाँ खींच रहे हैं। जेली एक बड़े पत्थर पर रुमाल बिछाकर बैठ गई है। दूर मैदान के किसी छोर से स्टोन-कटर मशीन का घरघराता स्वर सफेद हवा में तिरता आता है, मुलायम रूई में ढकी हुई आवाज की तरह, जिसके नुकीले कोने, झर गए हैं।
-तुम्हें यहाँ आना बुरा तो नहीं लगता ?-शम्मी भाई ने धरती पर सिर झुकाए धीमे स्वर में पूछा।
-तुम झूठ बोले थे ।-जेली ने कहा।
-कैसा झूठ, जेली ?
-तुमने बेचारी रूनी को बहकाया था, अब वह न जाने कहाँ हमें ढूँढ़ रही होगी।
-वह वाटर-रिजर्वायर की ओर गई होगी, कुछ ही देर में वापस आ जाएगी।-शम्मी भाई उसकी ओर पीठ मोड़े टहनी से धरती पर कुछ लिख रहे हैं।
जेली की आँखों पर एक छोटा-सा बादल उमड़ आया है-क्या आज शाम कुछ नहीं होगा, क्या जिंदगी में कभी कुछ नहीं होगा ? उसका दिल रबर के छल्ले की मानिंद खिंचता जा रहा है...खिंचता जा रहा है।
- शम्मी !...तुम यहाँ मेरे संग क्यों आए ?—और वह बीच में ही रुक गई। उसकी पलकों पर रह-रह-कर एक नरम-सी आहट होती है और वे मुँद जाती हैं, अंगुलियाँ स्वयं-चालित-सी मुठ्टी में भींच जाती हैं, फिर अवश-सी आप-ही-आप खुल जाती हैं।
-जेली, सुनो...
शम्मी भाई जिस टहनी से जमीन को कुरेद रहे थे, वह टहनी काँप रही है। शम्मी भाई के इन दो शब्दों के बीच कितने पत्थर हैं, बरसों, सदियों के पुराने, खामोश पत्थर, कितनी उदास हवा है और मार्च की धूप है, जो इतने बरसों बाद इस शाम को उनके पास आई है फिर कभी नहीं लौटेगी।... शम्मी भाई...! प्लीज !...प्लीज !...जो कुछ कहना है, अभी कह डालो, इसी क्षण कह डालो ! क्या आज शाम कुछ नहीं होगा, क्या जिंदगी में भी कभी कुछ नहीं होगा ?
वे बंगले की तरफ चलने लगे-ऊबड़-खाबड़ धरती पर उनकी खामोश छायाएँ ढलती हुई धूप में सिमटने लगीं।...ठहरो ! बेर की झाड़ियों के पीछे छिपी हुई रूनी के होंठ फड़क उठे, ठहरो...एक क्षण ! लाल-भुरभुरे पत्तों की ओट में भूला हुआ सपना झाँकता है, गुनगुनी सी सफेद हवा, मार्च की पीली धूप, बहुत दिन पहले सुने हुए रिकार्ड की जानी पहचानी ट्यून, जो चारों ओर फैली घास के तिनकों पर बिछ गई है...सब कुछ इन दो शब्दों पर थिर हो गया है, जिन्हें शम्मी भाई ने टहनी से धूल कुरेदते हुए धरती पर लिख दिया था, ‘जेली...लव’
जेली ने उन शब्दों को नहीं देखा। इतने बरसों बाद आज भी जेली को नहीं मालूम कि उस शाम शम्मी भाई ने काँपती टहनी से जेली के पैरों के पास क्या लिख दिया था। आज इतने लम्बे अर्से बाद समय की धूल इन शब्दों पर जम गई है।...शम्मी भाई, वह और जेली तीनों एक-दूसरे से दूर दुनिया के अलग-अलग कोनों में चले गए हैं, किन्तु आज भी रूनी को लगता है कि मार्च की उस शाम की तरह वह बेर की झाड़ियों के पीछे छिपी खड़ी है, (शम्मी भाई समझे थे कि वह वाटर-रिजर्वायर की ओर चली गई थी) किन्तु वह सारे समय झाड़ियों के पीछे साँस रोके, निस्पंद आँखों से उन्हें देखती रही थी, उस पत्थर को देखती रही थी, जिस पर कुछ देर पहले तक शम्मी भाई और जेली बैठे थे। ....आँसुओं के पीछे से सब कुछ धुँधला-धुँधला-सा हो जाता है...शम्मी भाई का काँपता हाथ, जेली की अधमुँदी-सी आँखें, क्या वह उन दोनों की दुनिया में कभी प्रवेश नहीं कर पाएगी ?
कहीं सहमा-सा जल है और उसकी छाया है, उसने अपने को देखा है, और आँखें मूँद ली हैं। उस शाम की धूप के परे एक हल्का-सा दर्द है, आकाश के उस नीले टुकड़े की तरह, जो आँसू के एक कतरे में ढरक आया था। इस शाम से परे बरसों तक स्मृति का उदभ्रान्त पाखी किसी सूनी घड़ी में ढकी हुई उस धूल पर मँडराता रहेगा, जहाँ केवल इतना-भर लिखा है,..‘जेली...लव’ ।
उस रात जब उनकी नौकरानी मेहरून्निसा छोटी बीबी के कमरे में गई, तो स्तंम्भित-सी खड़ी रह गई। उसने रूनी को पहले कभी ऐसा न देखा था।
-छोटी बीबी, आज अभी से सो गई ?-मेहरू ने बिस्तर के पास आकर कहा।
रूनी चुपचाप आँखें मूँद लेटी है। मेहरू और पास खिसक गई है। धीरे से उसके माथे को सहलाया-छोटी बीबी, क्या बात है ?
और तब रूनी ने अपनी पलकें उठा लीं, छत की ओर एक लम्बे क्षण तक देखती रही, उसके पीले चेहरे पर एक रेखा खिंच आई...मानो वह एक दहलीज हो, जिसके पीछे बचपन सदा के लिए छूट गया हो...
-मेहरू,...बत्ती बुझा दे–उसने संयत, निर्विकार स्वर में कहा-देखती नहीं, मैं मर गई हूँ !
इतने बरसों बाद रूनी को लगा कि वह बँगले के सामने खड़ी है और सब कुछ वैसा ही है, जैसा कभी बरसों पहले, मार्च के एक दिन की तरह था...कुछ भी नहीं बदला, वही बँगला है, मार्च की खुश्क, गरम हवा साँय-साँय करती चली आ रही है, सूनी सी दुपहर को परदे के रिंग धीमे-धीमे खनखना जाते हैं-और वह घास पर लेटी है-बस, अब अगर मैं मर जाऊँ, उसने उस घड़ी सोचा था।
लेकिन वह दुपहर ऐसी न थी कि केवल चाहने भर से कोई मर जाता है। लॉन के कोने में तीन पेड़ों का झुरमुट था, ऊपर की फुनगियाँ एक-दूसरे से बार-बार उलझ जाती थीं। बंगले की छत पर लगे एरियल पोल के तार को देखो, (देखो तो घास पर लेटकर अधमुँदी आँखों से रूनी ऐसे ही देखती है) तो लगता है, कैसे वह हिल रहा है हौले-हौले—अनझिप आँखों से देखो, (पलक बिल्कुल न मूँदो, चाहे आँखों में आँसू भर जाएँ तो भी—रूनी ऐसे ही देखती है) तो लगता है, जैसे तार बीच में से कटता जा रहा है और दो कटे हुए तारों के बीच आकाश की नीली फाँक आँसू की सतह पर हल्के-हल्के तैरने लगती है...
हर शनिवार की प्रतीक्षा हफ्ते भर की जाती है। ...वह जेली को अपने स्टाम्प-एल्बम के पन्ने खोलकर दिखलाती है और जेली अपनी किताब से आँखें उठाकर पूछती है—अर्जेटाइना कहाँ है ? सुमात्रा कहाँ है ?...वह जेली के प्रश्नों के पीछे फैली हुई असीम दूरियों के धूमिल छोर पर आ खड़ी होती है।...हर रोज नए-नए देशों के टिकटों से एल्बम के पन्ने भरते जाते हैं, और जब शनिवार की दुपहर को शम्मी भाई होटल से आते हैं, तो जेली कुर्सी से उठ खड़ी होती है, उसकी आँखों में एक घुली-घुली-सी ज्योति निखर आती है और वह रूनी के कंधे झिझोड़कर कहती है—जा, जरा भीतर से ग्रामोफोन तो ले आ।
रूनी क्षण-भर रुकती है, वह जाये या वहीं खड़ी रहे ? जेली उसकी बड़ी बहन है, उसके और जेली के बीच बहुत से वर्षों का सूना, लम्बा फासला है। उस फासले के दूसरे छोर पर जेली है, शम्मी भाई हैं, वह उन दोनों में से किसी को नहीं छू सकती। वे दोनों उससे अलग जीते हैं।...ग्रामोफोन महज एक बहाना है, उसे भेजकर जेली शम्मी भाई के संग अकेली रह जाएगी और तब...रूनी घास पर भाग रही है बंगले की तरफ...पीली रोशनी में भीगी घास के तिनकों पर रेंगती हरी, गुलाबी धूप और दिल की घड़कन, हवा, दूर की हवा के मटियाले पंख एरियल-पोल को सहला जाते हैं सर्र-सर्र, और गिरती हुई लहरों की तरह झाड़ियाँ झुक जाती हैं। आँखों से फिसलकर वह बूँद पलकों की छाँह में काँपती है, जैसे वह दिल की धड़कन है, जो पानी में उतर आई है।
शम्मी भाई जब होटल से आते हैं, तो वे सब उस शाम लॉन के बीचोबीच कैनवास की पैराशूटनुमा छतरी के नीचे बैठते हैं। ग्रामोफोन पुराने जमाने का है। शम्मी भाई हर रिकार्ड के बाद चाभी देतें हैं, जेली सुई बदलती है और वह, रूनी चुपचाप चाय पीती रहती है। जब कभी हवा का कोई तेज झोका आता है, तो छतरी धीरे-धीरे डोलने लगती है, उसकी छाया चाय के बर्तनों, टीकोजी और जेली के सुनहरी बालों को हल्के से बुहार जाती है और रूनी को लगता है कि किसी दिन हवा का इतना जबरदस्त झोंका आएगा कि छतरी धड़ाम से नीचे आ गिरेगी और वे तीनों उसके नीचे दब मरेंगे।
शम्मी भाई जब अपने होस्टल की बातें बताते हैं, तो वह और जेली विस्मय और कौतूहल से टुकुर-टुकुर उनकें चेहरे, उनके हिलते हुए होठों को निहारती हैं। रिश्ते में शम्मी भाई चाहे उनके कोई न लगते हों किन्तु उनसे जान-पहचान इतनी पुरानी है कि अपने-पराए का अन्तर कभी उनके बीच आया हो, याद नहीं पड़ता। होस्टल में जाने से पहले जब वह इस शहर में आए थे, तो अब्बा के कहने पर कुछ दिन उन्हीं के घर रहे थे।
अब कहीं वह शनिवार को उनके घर आते हैं, तो अपने संग जेली के लिए यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी से अंग्रेजी के उपन्यास और अपने मित्रों से माँगकर कुछ रिकार्ड लाना नहीं भूलते।
आज इतने बरसों बाद भी जब उसे शम्मी भाई के दिए हुए अजीबोगरीब नाम याद आते हैं, तो हंसी आए बिना नहीं रहती। उनकी नौकरानी मेहरू के नाम को चार चाँद लगाकर शम्मी भाई ने उसे कब सदियों पहले की सुकुमार शहजादी मेहरून्निसा बना दिया, कोई नहीं जानता। वह रेहाना से रूनी हो गई और आपा पहले बेबी बनी, उसके बाद जेली आइस्क्रीम और आखिर में बेचारी सिर्फ जेली बनकर रह गई। शम्मी भाई के नाम इतने बरसों बाद भी, लॉन की घास और बँगले की दीवारों से लिपटी बेल लताओं की तरह, चिरन्तन और अमर हैं।
ग्रामोफोन के घूमते हुए तवे पर फूल पत्तियाँ उग आती हैं, एक आवाज उन्हें अपने नरम, नंगे हाथों से पकड़कर हवा में बिखेर देती है, संगीत के सुर झाड़ियों में हवा से खेलते हैं, घास के नीचे सोई हुई भूरी मिट्टी पर तितली का नन्हा-सा दिल धड़कता है...मिट्टी और घास के बीच हवा का घोसला काँपता है...काँपता है...और ताश के पत्तों पर जेली और शम्मी भाई के सिर झुकते हैं, उठते हैं, मानो वे दोनों चार आँखों से घिरी साँवली झील में एक दूसरे की छायाएँ देख रहे हों।
और शम्मी भाई जो बात कहते हैं, उस पर विश्वास करना-न करना कोई माने नहीं रखता। उनके सामने जैसे सब कुछ छूट जाता है, सब कुछ खो जाता है...और कुछ ऐसी चीजें हैं, जो चुप रहती हैं और जिन्हें जब रूनी रात को सोने से पहले सोचती है, तो लगता है कि कहीं एक गहरा, धुँधला-सा गड्ढा है, जिसके भीतर वह फिसलते-फिसलते बच जाती है, और नहीं गिरती है तो मोह रह जाता है न गिरने का। ...और जेली पर रोना आता है, गुस्सा आता है। जेली में क्या कुछ है कि शम्मी भाई जो उसमें देखते हैं, वह रूनी में नहीं देखते ? और जब जेली में क्या कुछ है कि शम्मी भाई जेली के संग रिकार्ड बजाते हैं, ताश खेलते हैं, ( मेज के नीचे अपना पाँव उसके पाँव पर रख देते हैं) तो वह अपने कमरे की खिड़की के परदे के परे चुपचाप उन्हें देखती रहती है, जहाँ एक अजीब-सी मायावी रहस्यमयता में डूबा, झिलमिल-सा सपना है और परदे को खोलकर पीछे देखना, यह क्या कभी नहीं हो पाएगा ?
मेरा भी एक रहस्य है जो ये नहीं जानते, कोई नहीं जानता। रूनी ने आँखें मूँदकर सोचा, मैं चाहूँ तो कभी भी मर सकती हूँ, उन तीन पेड़ों के झुरमुट के पीछे, ठण्डी गीली घास पर, जहाँ से हवा में डोलता हुआ एरियल पोल दिखाई देता है।
हवा में उड़ती हुई शम्मी भाई की टाई...उनका हाथ, जिसकी हर अंगुली के नीचे कोमल सफेद खाल पर लाल-लाल-से गड्ढे उभर आए थे, छोटे-छोटे चाँद-से गड्ढे, जिन्हें अगर छुओ, मुठ्टी भीचों, हल्के-हल्के से सहलाओ, तो कैसा लगेगा ? सच कैसा लगेगा ? किन्तु शम्मी भाई को नहीं मालूम कि वह उनके हाथ को देख रही है, हवा में उड़ती हुई उनकी टाई, उनकी झिपझिपाती आँखों को देख रही है।
ऐसा क्यों लगता है कि एक अपरिचित डर की खट्टी-खट्टी-सी खुश्बू उसे अपने में धीरे-धीरे घेर रही है, उसके शरीर के एक-एक अंग की गाँठ खुलती जा रही है, मन रुक जाता है और लगता है कि लॉन से बाहर निकलकर वह धरती के अंतिम छोर तक आ गई है और उसके परे केवल दिल की धड़कन है, जिसे सुनकर उसका सिर चकराने लगता है ( क्या उसके संग ही यह होता है, या जेली के संग भी ?)।
-तुम्हारी एल्बम कहाँ है ?-शम्मी भाई से उसके सामने आकर खड़े हो गए। उसने घबराकर शम्मी भाई की ओर देखा। वह मुस्करा रहे थे।
-जानती हो, इसमें क्या है ?-शम्मी भाई ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। रूना का दिल धौकनी की तरह धड़कने लगा। शायद शम्मी भाई वही बात कहने वाले हैं, जिसे वह अकेले में, रात को सोने से पहले कई बार मन-ही-मन सोच चुकी है। शायद इस लिफाफे के भीतर एक पत्र है, जो शम्मी भाई ने चुपके से उसके लिए, केवल उसके लिए लिखा है। उसकी गर्दन के नीचे फ्राक के भीतर से ऊपर उठती हुई कच्ची-सी गोलाइयों में मीठी-मीठी-सी सुइयाँ चुभ रही हैं, मानो शम्मी भाई की आवाज ने नंगी पसलियों को हौले-से उमेठ दिया हो। उसे लगा, चाय की केतली की टीकोजी पर जो लाल-नीली मछलियाँ काढ़ी गई हैं, वे अभी उछलकर हवा में तैरने लगेंगी और शम्मी भाई सब कुछ समझ जाएँगे-उनसे कुछ भी न छिपा रहेगा।
शम्मी भाई ने वह नीला लिफाफा मेज पर रख दिया और उसमें से दो टिकट निकालकर मेज पर बिखेर दिए।
-ये तुम्हारी एल्बम के लिए हैं...
वह एकाएक कुछ समझ नहीं सकी। उसे लगा, जैसे उसके गले में कुछ फँस गया है और उसकी पहली और दूसरी साँस के बीच एक खाली अँधेरी खाई खुलती जा रही है...
जेली, जो माली के फावड़े से क्यारी खोदने में जुटी थी, उसके पास आकर खड़ी हो गई और अपनी हथेली हवा में फैलाकर बोली-देख रूनी मेरे हाथ कितने लाल हो गए हैं।
रूनी ने अपना मुँह फेर लिया।...वह रोयेगी, बिल्कुल रोयेगी, चाहे जो कुछ हो जाए...
चाय खत्म हो गई थी। मेहरून्निसा ताश और ग्रामोफोन भीतर ले गई और जाते-जाते कह गई कि अब्बा उन सबको भीतर आने के लिए कह रहे हैं। किंतु रात होने में अभी देर थी, और शनिवार को इतनी जल्दी भीतर जाने के लिए किसी के मन में कोई उत्साह नहीं था। शम्मी भाई ने सुझाव दिया कि वे कुछ देर के लिए वाटर-रिजर्वायर तक घूमने चलें। उस प्रस्ताव पर किसी को कोई आपत्ति नहीं थी। और वे कुछ ही मिनटों में बँगले की सीमा पार करके मैदान की ऊबड़-खाबड़ जमीन पर चलने लगे।
चारों ओर दूर-दूर तक भूरी-सूखी मिट्टी के ऊँचे-नीचे टीलों और ढूहों के बीच बेरों की झाड़ियाँ थी, छोटी-छोटी चट्टानों के बीच सूखी धारा उग आई थी, सड़ते हुए पीले पत्तों से एक अजीब, नशीली-सी, बोझिल, कसैली गंध आ रही थी, धूप की मैली तहों पर बिखरी-बिखरी-सी हवा थी।
शम्मी भाई सहसा चलते-चलते ठिठक गए।
-रूनी कहाँ है ?
-अभी तो हमारे आगे-आगे चल रही थी-जेली ने कहा। उसकी साँस ऊपर चढ़ती है और बीच में ही टूट जाती है।
दोनों की आँखें मैदान के चारों ओर घूमती हैं...मिट्टी के ढूहों पर पीली धूल उड़ती है।...लेकिन रूनी वहाँ नहीं है बेर की सूखी, मटियाली झाड़ियाँ हवा में सरसराती हैं, लेकिन रूनी वहाँ नहीं है।...पीछे मुड़कर देखो, तो पगडण्डियों के पीछे पेड़ों के झुरमुट में बँगला छिप गया है, लॉन की छतरी छिप गई है... केवल उनके शिखरों के पत्ते दिखाई देते हैं, और दूर ऊपर फुनगियों का हरापन सफेद चाँदी में पिघलने लगा है। धूप की सफेदी पत्तों से चाँदी की बूँदों-सी टपक रही है।
वे दोनों चुप हैं... शम्मी भाई पेड़ की टहनी से पत्थरों के ईर्द-गिर्द टेढ़ी-मेढ़ी आकृतियाँ खींच रहे हैं। जेली एक बड़े पत्थर पर रुमाल बिछाकर बैठ गई है। दूर मैदान के किसी छोर से स्टोन-कटर मशीन का घरघराता स्वर सफेद हवा में तिरता आता है, मुलायम रूई में ढकी हुई आवाज की तरह, जिसके नुकीले कोने, झर गए हैं।
-तुम्हें यहाँ आना बुरा तो नहीं लगता ?-शम्मी भाई ने धरती पर सिर झुकाए धीमे स्वर में पूछा।
-तुम झूठ बोले थे ।-जेली ने कहा।
-कैसा झूठ, जेली ?
-तुमने बेचारी रूनी को बहकाया था, अब वह न जाने कहाँ हमें ढूँढ़ रही होगी।
-वह वाटर-रिजर्वायर की ओर गई होगी, कुछ ही देर में वापस आ जाएगी।-शम्मी भाई उसकी ओर पीठ मोड़े टहनी से धरती पर कुछ लिख रहे हैं।
जेली की आँखों पर एक छोटा-सा बादल उमड़ आया है-क्या आज शाम कुछ नहीं होगा, क्या जिंदगी में कभी कुछ नहीं होगा ? उसका दिल रबर के छल्ले की मानिंद खिंचता जा रहा है...खिंचता जा रहा है।
- शम्मी !...तुम यहाँ मेरे संग क्यों आए ?—और वह बीच में ही रुक गई। उसकी पलकों पर रह-रह-कर एक नरम-सी आहट होती है और वे मुँद जाती हैं, अंगुलियाँ स्वयं-चालित-सी मुठ्टी में भींच जाती हैं, फिर अवश-सी आप-ही-आप खुल जाती हैं।
-जेली, सुनो...
शम्मी भाई जिस टहनी से जमीन को कुरेद रहे थे, वह टहनी काँप रही है। शम्मी भाई के इन दो शब्दों के बीच कितने पत्थर हैं, बरसों, सदियों के पुराने, खामोश पत्थर, कितनी उदास हवा है और मार्च की धूप है, जो इतने बरसों बाद इस शाम को उनके पास आई है फिर कभी नहीं लौटेगी।... शम्मी भाई...! प्लीज !...प्लीज !...जो कुछ कहना है, अभी कह डालो, इसी क्षण कह डालो ! क्या आज शाम कुछ नहीं होगा, क्या जिंदगी में भी कभी कुछ नहीं होगा ?
वे बंगले की तरफ चलने लगे-ऊबड़-खाबड़ धरती पर उनकी खामोश छायाएँ ढलती हुई धूप में सिमटने लगीं।...ठहरो ! बेर की झाड़ियों के पीछे छिपी हुई रूनी के होंठ फड़क उठे, ठहरो...एक क्षण ! लाल-भुरभुरे पत्तों की ओट में भूला हुआ सपना झाँकता है, गुनगुनी सी सफेद हवा, मार्च की पीली धूप, बहुत दिन पहले सुने हुए रिकार्ड की जानी पहचानी ट्यून, जो चारों ओर फैली घास के तिनकों पर बिछ गई है...सब कुछ इन दो शब्दों पर थिर हो गया है, जिन्हें शम्मी भाई ने टहनी से धूल कुरेदते हुए धरती पर लिख दिया था, ‘जेली...लव’
जेली ने उन शब्दों को नहीं देखा। इतने बरसों बाद आज भी जेली को नहीं मालूम कि उस शाम शम्मी भाई ने काँपती टहनी से जेली के पैरों के पास क्या लिख दिया था। आज इतने लम्बे अर्से बाद समय की धूल इन शब्दों पर जम गई है।...शम्मी भाई, वह और जेली तीनों एक-दूसरे से दूर दुनिया के अलग-अलग कोनों में चले गए हैं, किन्तु आज भी रूनी को लगता है कि मार्च की उस शाम की तरह वह बेर की झाड़ियों के पीछे छिपी खड़ी है, (शम्मी भाई समझे थे कि वह वाटर-रिजर्वायर की ओर चली गई थी) किन्तु वह सारे समय झाड़ियों के पीछे साँस रोके, निस्पंद आँखों से उन्हें देखती रही थी, उस पत्थर को देखती रही थी, जिस पर कुछ देर पहले तक शम्मी भाई और जेली बैठे थे। ....आँसुओं के पीछे से सब कुछ धुँधला-धुँधला-सा हो जाता है...शम्मी भाई का काँपता हाथ, जेली की अधमुँदी-सी आँखें, क्या वह उन दोनों की दुनिया में कभी प्रवेश नहीं कर पाएगी ?
कहीं सहमा-सा जल है और उसकी छाया है, उसने अपने को देखा है, और आँखें मूँद ली हैं। उस शाम की धूप के परे एक हल्का-सा दर्द है, आकाश के उस नीले टुकड़े की तरह, जो आँसू के एक कतरे में ढरक आया था। इस शाम से परे बरसों तक स्मृति का उदभ्रान्त पाखी किसी सूनी घड़ी में ढकी हुई उस धूल पर मँडराता रहेगा, जहाँ केवल इतना-भर लिखा है,..‘जेली...लव’ ।
उस रात जब उनकी नौकरानी मेहरून्निसा छोटी बीबी के कमरे में गई, तो स्तंम्भित-सी खड़ी रह गई। उसने रूनी को पहले कभी ऐसा न देखा था।
-छोटी बीबी, आज अभी से सो गई ?-मेहरू ने बिस्तर के पास आकर कहा।
रूनी चुपचाप आँखें मूँद लेटी है। मेहरू और पास खिसक गई है। धीरे से उसके माथे को सहलाया-छोटी बीबी, क्या बात है ?
और तब रूनी ने अपनी पलकें उठा लीं, छत की ओर एक लम्बे क्षण तक देखती रही, उसके पीले चेहरे पर एक रेखा खिंच आई...मानो वह एक दहलीज हो, जिसके पीछे बचपन सदा के लिए छूट गया हो...
-मेहरू,...बत्ती बुझा दे–उसने संयत, निर्विकार स्वर में कहा-देखती नहीं, मैं मर गई हूँ !
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